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Wednesday, November 21, 2012

गुमशुदा

रहता है सबके आस-पास ही
फिर भी न जाने कैसे
हो ही जाता है सबका
कभी न कभी कुछ न कुछ-
गुमशुदा |

इस भेड़ चाल के दौर में,
सब कुछ है गुमशुदा;
इसका भी कुछ गुमशुदा,
उसका भी कुछ गुमशुदा |

किसी का ईमान गुमशुदा,
किसी का जहान गुमशुदा;
गुमशुदा है अपने ही अंदर की अंतरात्मा,
जीवित होके भी जान गुमशुदा |

जीवन से बहार गुमशुदा,
किसी का संस्कार गुमशुदा;
गुमशुदा है हृदय के अंदर का बैठा वो भगवान,
तलवार तो है पर धार गुमशुदा |

मतिष्क से एहसास गुमशुदा,
हृदय से जज़्बात गुमशुदा;
गुमशुदा है मानव के अंदर की मानवता,
जुबान तो है ही पर मिठास गुमशुदा |

रिश्तों से विश्वास गुमशुदा,
अपनों पर से आस गुमशुदा;
गुमशुदा है पहले जो होता था परोपकार भाव,
एक दूजे के हृदय में आवास गुमशुदा |

नहीं है किसी को फिकर,
नहीं है किसी को खोज;
जो गुम हो गया वो गुम ही रहे,
जो एक बार गया वो सदैव के लिए-
गुमशुदा |

Monday, November 12, 2012

दीपों की आवली सजाओ

जहाँ को जगमग करते जाओ,
खुशियों की सौगात है आई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

श्री कृष्ण ने सत्यभामा संग नरकासुर संहार किया,
सोलह हज़ार स्त्रियों के संग इस धरा का भी उद्धार किया ।

असुर प्रवृति के दमन का
उत्सव आज मनाओ भाई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

रक्तबीज के कृत्य से जब तीनो लोकों में त्रास हुआ,
माँ काली तब हुई अवतरित, दुष्ट का फिर  तब नाश हुआ ।

शक्ति स्वरुपा माँ काली व,
माँ लक्ष्मी को पूजो भाई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

लंका विजय, रावण मर्दन कर लखन, सिया संग राम जी आये,
अवध का घर-घर हुआ तब रोशन, सबके मन आनंद थे छाये ।

उस त्योहार में हो सम्मिलित,
बांटों, खाओ खूब मिठाई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

पवन तनय का आज जनम दिन, कष्ट हरने धरा पर आये,
सेवक हैं वो राम के लेकिन, सबका कष्ट वो दूर भगाए ।

नरक चतुर्दशी, यम पूजा भी,
सब त्यौहार मनाओ भाई,
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

मर्यादित हो और सुरक्षित, दीवाली खुशियों का बहाना,
दूर पटाखों से रहना है, बस प्रकाश से पर्व मनाना ।

अपने साथ धरती भी बचाओ,
प्रदुषण को रोको भाई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

(सभी को दिवाली, काली पूजा एवं लक्ष्मी पूजा की हार्दिक शुभकामनायें । आप सबका दिन सुरक्षित और मंगलमय हो )

Wednesday, November 7, 2012

बोलती आँखें

अकसर देखा है,
कई बार
निःशब्द हो जाते हैं
जुबान हमारे,
कुछ भी व्यक्त करना
हो जाता है दुष्कर,
अथक प्रयास पर भी
शब्द नहीं मिलते;
कुछ कहते कहते 
लड़खड़ा जाती है जिह्वा,
हृदय के भाव
आते नहीं अधरों तक ।
पर 
ये बोलती आँखें 
कभी चुप नहीं होती ,
खुली हो तो 
कुछ कहती ही है;
अनवरत करती हैं 
भावनाओं का उद्गार,
आवश्यक नहीं इनके लिए 
शब्दों का भण्डार ,
भाषा इनकी है 
हर किसी से भिन्न ।
जो बातें 
अटक जाती हैं
अधरों के स्पर्श से पूर्व,
उन्हें भी ये 
बयाँ करती बखूबी;
ये बोलती आँखें 
कहती हैं सब कुछ,
कोई समझ है जाता 
को अनभिज्ञ रह जाता,
पर बतियाना रुकता नहीं,
हर भेद उजागर करती
ये बोलती आँखें ।


Saturday, November 3, 2012

छोटी-सी गुड़िया

छोटी-सी वो गुड़िया थी गुड़ियों संग खेला करती थी,
खेल-कूद में, विद्यालय में सदा ही अव्वल रहती थी ।

भोली थी, नादान थी वो पर दिल सबका वो लुभाती थी,
मासूमियत की मूरत थी, बिन पंख ही वो उड़ जाती थी ।

बचपन के उस दौर में थी जब हर पल उसका अपना था,
दुनिया से सरोकार नहीं था, उसका अपना सपना था । 

यूँ तो सबकी प्यारी थी पर पिता तो 'बोझ' समझता था, 
एक बेटी है जंजाल है ये, वो ऐसा ही रोज समझता था । 

शादी-ब्याह करना होगा, हर खर्च वहन करना होगा,
लड़के वालों की हर शर्तें, हर बात सहन करना होगा ।

कन्यादान के साथ में कितने 'अन्य' दान करने होंगे,
घर के साथ इस महंगाई में, ये देह गिरवी धरने होंगे ।

छोटी-सी एक नौकरी है, ये कैसे मैं कर पाउँगा,
रोज ये रोना रोता था, मैं जीते जी मर जाऊंगा । 

जितनी जल्दी उतने कम दहेज़ में काम बन जायेगा, 
किसी तरह शादी कर दूँ, हर बोझ तो फिर टल जायेगा । 

इस सोच से ग्रसित बाप ने एक दिन कर दी फिर मनमानी, 
बारह बरस की आयु में गुडिया की ब्याह उसने ठानी । 

सोलह बरस का देख के लड़का करवा ही दी फिर शादी, 
शादी क्या थी ये तो थी एक जीवन की बस बर्बादी । 

छोटी-सी गुड़िया के तो समझ से था सबकुछ परे, 
सब नादान थे, खुश थे सब, पर पीर पराई कौन हरे । 

ब्याह रचा के अब गुड़िया को ससुराल में जाना था, 
खेल-कूद छोड़ गृहस्थी अब उस भोली को चलाना था । 

उस नादान-सी 'बोझ' के ऊपर अब कितने थे बोझ पड़े, 
घर-गृहस्थ के काम थे करने, वो अपने से रोज लड़े । 

इसी तरह कुछ समय था बीता फिर एक दिन खुशखबरी आई, 
घर-बाहर सब खुश थे बड़े, बस गुड़िया ही थी भय खाई । 

माँ बनने का मतलब क्या, उसके समक्ष था प्रश्न खड़ा, 
तथाकथित उस 'बोझ' के ऊपर आज एक दायित्व बढ़ा । 

कष्टों में कुछ मास थे गुजरे, फिर एक दिन तबियत बिगड़ा, 
घर के कुछ उपचार के बाद फिर अस्पताल जाना पड़ा । 

देह-दशा देख डॉक्टर ने तब घरवालों को धमकाया, 
छोटी-सी इस बच्ची का क्यों बाल-विवाह है करवाया ? 

माँ बनने योग्य नहीं अभी तक देह इसका है बन पाया, 
खुशियाँ तुम तो मना रहे पर झेल रही इसकी काया । 

शुरू हुआ ईलाज उसका पर होनी ही थी अनहोनी, 
मातम पसर गया वहां पर सबकी सूरत थी रोनी । 

बच्चा दुनिया देख न पाया, माँ ने भी नैन ढाँप लिए, 
चली गई छोटी-सी गुड़िया, बचपन अपना साथ लिए । 

साथ नहीं दे पाया, उसके देह ने ही संग छोड़ दिया, 
आत्मा भी विलीन हुई, हर बंधन को बस तोड़ दिया । 

एक छोटी-सी गुड़िया थी वो चली गई बस याद है, 
ये उस गुड़िया की कथा नहीं, जाने कितनों की बात है । 

ऐसे ही कितनी ही गुड़िया समय पूर्व बेजान हुई, 
कलुषित सोच और कुरीत के, चक्कर में बलिदान हुई ।

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-प्रदीप